भगवान परशुराम जीवन चरित
भगवान परशुराम जीवन चरित
पौरोणिक कथानुसार भगवान परशुराम जी का जन्म भृगश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि के घर रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान विष्णु के छटे अवतार थे। प्राचीन काल में कन्नौज में गाधि नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यतीम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषिक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चात् वहाँ भृगु ऋषि ने आकर अपनी को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भग ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतुस्नान कर चुकी हो तब तुम और तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सायानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृणु ने अपनी पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो उसने अपने घर को अपनी पुत्री के रू
के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्ति से भृगु को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बो कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। इस पर सत्यवती ने भृगु से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे।
-रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस और परशुराम
पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त की। महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त किया।
तदनन्तर कैलाश गिरि पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं दिव्य मन्त्र कल्पतरू भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में परशुरामावतार के रूप में कल्पान्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त “शिव पंचचत्वारिंशत्नाम स्तोत्र भी लिखा। वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। भविष्य में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करेंगे। परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पराणु और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे ब्रह्मतेजस्वि और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये जिस में कोंकण, गोवा एवं केरल का समावेश है।
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरल तक समुद्र को पीछे धकेलते हुए नई भूमि का निर्माण किया और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरल में भगवान परशुराम विशेष वंदनीय है। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में शस्त्र व शास्त्र में निष्णात थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है। यह भी ज्ञात है कि परशुराम ने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीख ली थी। वे पशु-पक्षियों की भाषा भी समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। उन्होंने सैन्यशिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं जैसे भीष्म और कर्ण
उनके प्रसिद्ध शिष्य भीष्म, द्रोण, एवं कर्ण
कथानुसार हैहय वंशाधिपति कार्त्तवीर्य (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्र भुजाएँ तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुँचा और देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि का वध करते हुए कामधेनु को बलपूर्वकछीनकर ले गया। कुपित परशुराम ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डाली व सिर को धड़ से पृथक् कर दिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से केवल दुष्ट क्षत्रियों का विनाश किया। उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्यमंत पंचक क्षेत्र (वर्तमान में रामहूद तीर्थ रामराय गांव जिला जींद, हरियाणा) के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कथानक मिलता है कि कैलाश स्थित भगवान शंकर के अन्तःपुर में प्रवेश करते समय गणेश जी द्वारा रोके जाने पर परशुराम ने बलपूर्वक अन्दर जाने की चेष्ठा की। तब गणपति ने उन्हें स्तम्भित कर दिया। कुपित परशुरामजी द्वारा किए गए फरसे के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत टूट गया, जिससे वे एकदन्त कहलाये। उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर भगवान को पहचान लिया और अपनी कलाएं उन्हें सौंपकर स्वयं तप के
लिए चले गये। रामचरित मानस की ये पंक्तियों साक्षी हैं कह जय जय जय रघुकुलकेतू, भृगुपति गये वनहिं तप हेतू वाल्मीकि रामायण में वर्णित कथा के अनुसार दशरथनन्दन श्रीराम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया।
भीष्म द्वारा स्वीकार न किये जाने के कारण अंबा प्रतिशोध वश सहायता माँगने के लिये परशुराम के पास आयी। तब सहायता का आश्वासन देते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिये ललकारा। उन दोनों के बीच २३ दिनों तक घमासान युद्ध चला किन्तु अपने पिता द्वारा इच्छा मृत्यु के वरदान स्वरुप परशुराम उन्हें हरा न सके। परशुराम अपने जीवन भर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, तब द्रोणाचार्य उनके पास पहुॅचे। किन्तु दुर्भाग्यवश वे तब तक सब कुछ दान कर चुके थे। तब परशुराम ने दयाभाव से द्रोणचार्य से कोई भी अस्त्र-शस्त्र मांगने को कहा। तब चतुर द्रोणाचार्य ने कहा कि मैं आपके सभी अस्त्र शस्त्र मन्त्रों सहित चाहता हूँ। परशुरामजी ने कहा- “एवमस्तु ।’ अर्थात् ऐसा ही हो। इससे द्रोणाचार्य शस्त्र विद्या में निपुण हो गये। परशुराम कर्ण के भी गुरु थे। उन्होंने कर्ण को भी विभिन्न प्रकार कि अस्त्र शिक्षादी थी और ब्रह्मास्त्र चलाना भी सिखाया था लेकिन कर्ण एक सूत का पुत्र था, फेर भी यह जानते हुए कि परशुराम केवल ब्राह्मणों को ही अपनी विद्या दान करते हैं, कर्ण ने छल करके परशुराम से विद्या लेने का प्रयास किया। परशुराम ने उसे ब्राह्मण समझ कर बहुत सी विद्यायें सिखार्थी, लेकिन एक दिन जब परशुराम जी एक वृक्ष के नीचे कर्ण की गोदी में सर रखके सो रहे थे, तब एक भौरा आकर कर्ण के पैर पर काटने लगा, अपने गुरुजी की नींद में कोई अवरोध न आये इसलिये कर्ण भौर को सहता रहा, भौरा कर्ण के पैर को बुरी तरह काटे जा रहा था, भौरे के काटने के कारण कर्ण का खून बहने लगा। वो खून बहता हुआ परशुराम जी के पैरों तक जा पहुँचा परशुराम जी की नींद खुल गयी और वे इस खून को तुरन्त पहचान गये कि यह खून तो किसी क्षत्रिय का ही हो सकता है जो इतनी देर तक बगैर उफ़ किये बहता रहा। उन्होंने कर्ण को यह श्राप दिया की उनका सिखाया हुआ सारा ज्ञान उसके किसी काम नहीं। आएगा जब उसे उसकी सर्वाधिक आवश्यकता होगी। इसलिए जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण और अर्जुन आमने सामने होते ही सब शिक्षा भूल गया और अर्जुन द्वारा मारा गया क्योंकि उस समय कर्ण को ब्रह्मास्त्र चलाने का ज्ञान 1 ध्यान में ही नहीं रहा।
सारगर्भित तथ्य
• भगवान् ब्रह्मा के पुत्र महर्षि भृगु हुए। उनके पुत्र महर्षि ऋचीक थे। महर्षि ऋचीक के पुत्र महर्षि जमदग्नि और उनके पुत्र भगवान परशुरामजी हुए। इस तरह भृगुऋषि की चौथी पीढ़ी में भगवान परशुराम का अवतरण हुआ था।
• भगवान परशुरामजी की माता का नाम रेणुका था। दादी का नाम सत्यवतीदेवी था। सत्यवती जी और विश्वामित्र ऋषि सगे भाई बहन थे। सत्यवती पुत्र महर्षि जमदग्नि और गाधि पुत्र महर्षि विश्वामित्र का जन्म समकालिक था क्यों कि इन दोनों की उत्पत्ति के लिए ऋषि ऋचीक ने ही यज्ञ किया था। इस तरह महर्षि विश्वामित्र भगवान परशुरामजी के सगे मामा थे।
• वैशाखशुक्ल तृतीया को सायं काल पुनर्वसु नक्षत्र मेंतुला लग्न और मिथुन के राहु में छः ग्रहोंकी उच्चावस्था में भगवान परशुराम उत्पन्न हुए थे।
• अत्रि और माता अनसूया सभी जानते
*भगवान ब्रह्मा के पुत्र और महर्षि भृगु के भाई हैं अत्रि जी महर्षि अत्रि के पुत्र चंद्र, उनके पुत्र बुध तथा बुध के पुत्र हैं पुरुरवा जिनकी पत्नी उर्वशी थीं। पुरुरवा के छः पुत्र थे। पांचवें पुत्र विजय की पीढ़ी में ग्यारहवीं पर गाधि उत्पन्न हुए जिनकी पुत्री सत्यवती और पुत्र विश्वामित्र थे।
*पुरुरवा के प्रथम पुत्र आयु की वंश परम्परा की १९वीं पीढ़ी में सहस्रार्जुन उत्पन्न हुआ था। इसके वृद्ध परदादा महिष्मान ने नर्मदा नदी के तट पर माहिष्मती नगरी बसायी थी जो आज ओंकारेश्वर से चालीस किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। यहीं रहकर अहिल्याबाई अपने राज्यका संचालन करती थीं।
* पुरुरवा के वंश से सम्बन्ध महर्षि विश्वामित्र और कार्तवीर्यार्जुन दोनों का है।
*सत्यवतीका हाथ मांगने जब महर्षि ऋचीक गए तब गाधि ने उनसे एक हजार श्यामकर्ण घोड़ों की मांग की। अपनी तपस्या से वरुणसे मांगकर महर्षि ने तुरंत गाधि को दिया। जीवन के अंत में अपनी तपस्या के बल से सत्यवती कौशिकी नदी बन गई। उसी के तट पर विश्वामित्रने आश्रम बनाया। यह नदी नेपाल और भारत में बहती है।
* महर्षि अत्रि के तीन पुत्रों में एक दत्तात्रेय की आराधना कर अर्जुन ने उनसे एक हजार भुजाएं मांगी। एक विमान मांगा। पुरुषघातिनी शक्ति मांगी तथा अन्यान्य शस्त्रास्त्र मांगे।
* महर्षि जमदग्नि के अनेक आश्रम थे। नर्मदा नदी के जंगल वाले आश्रम में ★ रहते समय सहस्रार्जुन सेनाके साथ गया। महर्षि ने उसे सेना के साथ भोजन कराया। जब उसे पता चला कि यह चमत्कार महर्षि की गाय कामधेनु का है तब वह उसे बलात् हर ले गया। भगवान परशुराम के चार ज्येष्ठ भ्राता भी थे. पर किसी ने प्रतिकार नहीं किया।• जब भगवान परशुराम आये और उन्हें स्थिति का पता चला तब उन्होंने भगवान शिव से प्राप्त शस्त्रास्त्रों का आह्वान किया और विद्युत्वेग से दौड़ते हुए सहस्रार्जुन को राजधानी के मुहाने पर घेर लिया। कल्पान्त रौद्र रूप, आकाश में चमकती विद्युत की तरह पिंगल जटाएं, सम्मुख चारों वेद, पीठ पर अक्षय तरकश, ॐ ध्वनि से गूंजता दिगन्त और प्रज्वलित सूर्य सी दहकती दो आंखें गम्भीर नाद अर्जुनामै भगवान शिव का शिष्य जामदग्न्य परशुराम तुझे युद्ध देता हूँ। इतना सुनते ही उधर से एक हजार भुजाओं से पांच सौ बाण एक साथ चल पड़े। भगवान परशुराम ने उन सभी को परशु में समाहित कर लिया। एक बार अभिमंत्रित परशु चला और एक हजार भुजाएं जमीन पर कट कर गिरी और छिपकली की तरह नाचने लगीं। दूसरे ही क्षण सिर कबंध से अलग था। सेना स्तब्ध तब तक एक दिव्यास्त्र निकला और सत्तरह अक्षौहिणी सेना समाप्त। कामधेनु को प्रणाम कर सादर लेकर आश्रम लौट आये भृगुकुल सूर्य परशुराम
•सहस्रार्जुन के पुत्रों ने घात लगा कर परशुराम की अनुपस्थिति में दोपहर हवन करते जमदग्नि को घेर कर यज्ञ मंडप में ही काट डाला। उनके साथ अर्जुनके २१ मित्र भी थे जिनमें कतिपय तो जमदग्नि ऋषि के सम्बन्धी भी थे। जब परशुराम जी लौट कर आये तो माता रेणुका ने २१ बार छाती पीटते. हुए २१ अपराधियों का नाम बतलाया। भगवान परशुराम ने प्रतिज्ञा की इन २१ आततायियों के वंश का नाश करूंगा और वही विद्युत प्रवाह दौड़। अर्जुन के पुत्रों का बध। २१ जघन्य, नीच, दुष्ट राजाओं के वंश की खोज शुरू की भगवान परशुराम ने।
*१कश्मीर २ दरद ३ कुन्त ४ क्षुद्रक ५ मालव ६ शक ७ चेदि ८ काशी ९ करुष १० ऋषिक ११ क्रथ १२ कैशिक १३ अंग १४ बंग १५ कलिंग १६ मगध १७ कोसल १८ रात्रावन १२ वीति क्षेत्र २० किरात मार्तिकावर्त (चित्ररथ) । इनको खोज कर मारने में वर्षों लग गए भगवान परशुराम को चित्ररथ तो पहले भी दोषी था जमदग्नि महर्षि का
* भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा- पार्थीपराशर ऋषि ने अपने आश्रम में सौदासपुत्र सर्वकर्मा को छुपाया
महर्षि गौतम ने दिविरथ के पुत्र को छुपा कर बचाया। गृद्ध कूट पर्वत पर छुप कर लंगूरों के बीच बृहद्रथ बचा। महाराज मरूत का पुत्र माता के साथ समुद्रतटवर्ती जंगलों में जा कर बचा।● माता पृथ्वी के निवेदन पर कश्यप ऋषि के कहने पर भगवान परशुरम विरत हुए और सभी राजपुत्रों को कश्यप, गौतम, पराशर आदि ने पुनः राज्याभिषिक्त कर धर्म को संचालित किया। माता पिता की मृत्यु से आहत भगवान परशुराम शिव जी के पास गए। वहाँ गणपति ने मिलने से रोक दिया तब परशुराम जी का फरसा चला और गणपति एकदंत खो कर एकदंत बन गए। भगवान परशुराम ने समुद्र को पीछे धकेल कर अपने लिए केरल में जगह बना ली। वे कहते हैं-अन्याय का प्रतिकार करो और समुद्र से लेकर पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करो। डरो मत लड़ो। उन्होंने विश्वामित्र के पौत्र का भी बध किया था क्योंकि उसने इनको कायर, जंगल में छुपकर रहने वाला कहा था।यह घटना आज से बहुत पहले सत्ययुग में घट चुकी है। इसमें एक ही प्रतिपाद्य है ‘धर्म के अनुसार यदि राजा राज्य न करे तो तपस्वी को भी मोर्चा खोलने
का धार्मिक अधिकार है *ब्राह्मण त्रिषु वर्णेषु गृह्णन् शस्त्रं न दुष्यति ।।
हिंदू धर्म ग्रंथों में कुछ महापुरुषों का वर्णन है जिन्हें आज भी अमर माना जाता है। इन्हें अष्टचिरजीवी भी कहा जाता है। इनमें से एक भगवान विष्णु के आवेशावतार परशुराम भी हैं
अश्वत्थामा बलिव्यासो हनूमांश्च विभीषण कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः।। सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमधाष्टमम्। जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जितः ॥
इस श्लोक के अनुसार अश्वत्थामा, राजा बलि, महर्षि वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, भगवान परशुराम तथा ऋषि मार्कण्डेय अमर है।ऐसी मान्यता है कि भगवान परशुराम वर्तमान समय में भी उपस्या में लीन है। इच्छित फल प्रदाता परशुराम गायत्री है. ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तोपरशुराम प्रचोदयात्
भगवान परशुराम व्रत
भगवान परशुराम जी की कृपा प्राप्त करने के लिए सवा साल ● या अधिक समय तक पूर्णिमा का व्रत किया जा सकता है। व्रत रखने वाला रामहूदतीर्थ अथवा अन्य तीर्थ पर स्नान करें। तथा भगवान परशुराम चालीसा, शतनामस्तोत्र, आरती आदि जितना हो सके उतना करें।
“जय परशुराम जय सुखधाम या परशुराम गायत्री का १०८ बार जप करें। परशुराम स्तोत्र का पाठ भी समयानुसार किया जा सकता है।
फलाहार/ दुग्ध का सेवन दिन में ही करें। नमक का प्रयोग न करें। सूर्य और चंद्रमा दोनों को यथासमय जल दें। उद्यापन में ग्यारह ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र फलादि दान करें। यज्ञादि कराएं।
“मंत्र
ॐ ब्रह्मक्षेत्राय विद्महे क्षत्रियान्ताय धिमहि तन्नो रामः प्रचोदयात्।
(इति)
भगवान् परशुराम जी ने मां राजराजेश्वरी त्रिपुर सुंदरी की उपासना से ही ब्रह्मतेज प्राप्त किया। और भगवान परशुरामजी ने परशुराम कल्पसूत्र की रचना की जिसमें देवी त्रिपुरा की महिमा एवं पूजा विधि का उल्लेख मिलता है। इसके साथ ही त्रिपुरा रहस्य माहात्म्यखंड में भगवान ने श्री दत्तात्रयजी से त्रिपुरादेवी चरित्र तथा आराधना विधि प्राप्त कर उसे सौ अध्यायों में निबद्ध किया है।
जय श्री भगवान परशुराम
🙏ज्योतिषाचार्या सुदेश शर्मा कुरुक्षेत्र हरियाणा